(प्रकाश यादव निर्भीक जी के सुपुत्र हैं विवेक |)
Thursday, January 15, 2009
-:मेरी महबूबा:-
(प्रकाश यादव निर्भीक जी के सुपुत्र हैं विवेक |)
यूँ झुकना हमें भी गवारा नहीं है
यूँ झुकना हमें भी गवारा नहीं है
Wednesday, January 14, 2009
शायरी का सफर
है ये कैसी कशिश ताजगी की इधर
किसकी खुशबू से महकी हुई है सहर ।
जिंदगी का ये कैसा अनोखा पहर
जिसमें बहने लगी शायरी की लहर।
इस चमन के कभी हम परिंदे न थे
ख़ुद-ब-ख़ुद `पर` खींच लाये इधर।
अपनी ऐसी कोई बेबसी भी न थी
चल पड़े जो कदम इस नयी राह पर ।
अटपटी सी डगर का मुसाफिर `कमल`
ख़त्म होगा कहाँ शायरी का सफर।
Friday, January 9, 2009
कविता
सुबह का भूला घर आजाए शाम ढ़ले तो कविता है,
मेहनतकश हाथों को फिर से काम मिले तो कविता है,
मदिरालय को जाने वाला मुड़ जाए देवालय को,
गंगाजल के साथ उसे हरिनाम मिले तो कविता है ।
आंख का खारा पानी मीठे बैन सुने तो कविता है,
किसी दर्द को किसी शब्द से चैन मिले तो कविता है,
शब्द अगर मरहम बन जाएं रिसती हुई बिवाई पर,
तेरे आँसू मेरी आँख से अगर ढ़्ले तो कविता है ।
मन के मुरझाए उपवन में सुमन खिलें तो कविता है,
पिंजरे में बैठे पंछी को गगन मिले तो कविता है,
परदेसों की चकाचौंध में अब तक जितने भटके हैं,
उन लोगों को फिर से उनका वतन मिले तो कविता है ।
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गर यह धरा है गोल इसका व्यास है कविता,
परिधि पे भी है, केन्द्र के भी पास है कविता,
दो बिन्दुओं को दो दिलों सा जोड़ती है ये,
सच पूछिए इक ज्यामितीय अभ्यास है कविता ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~प्रणय निवेदन
तुम गीत ग़ज़ल हो या कविता, तुम ही हो मेरा प्यार प्रिये
मैं काव्यचंद्र का हूँ चकोर, मैं काव्यस्वाति का चातक हूँ
यह प्रणय निवेदन तुम मेरा, अब तो कर लो स्वीकार प्रिये
तुम मुक्तक हो उन्मुक्त कोई, या स्वरसंयोजित कोई छंद
उद्दाम लहर हो सागर की, या ठहरी-ठहरी जलप्रबंध
गाती बहलाती मन अपना, हो पिंजरबद्ध कोई पाखी
या फिर सीमाहीन गगन में, नभक्रीड़ा रत विहग वृंद
आखेट करूँ या फुसला लूँ, बोलो, क्योंकि अब तुम ही हो
मुझ जैसे आखेटक प्रेमी के, जीवन का आधार प्रिये
लिये प्रेम की पाती नभ में, ’मेघदूत’ की कृष्ण घटा सी
मयख़ारों के मन को भाई, ’मधुशाला’ की मस्त हला सी
गीतसुसज्जित कानन वन में, स्वरसुरभित चंदन के तनपर
नवकुसुमित कलियों को लेकर, लिपटी सहमी छंद लता सी
नव पाँखुरियों की मधुर गंध, छाई काव्यों के उपवन में
निज श्वास सुवासित करने का, दे दो मुझको अधिकार प्रिये
दिन में उजियारा फैलाया, बनकर संतों की सतबानी
संध्याकाल क्षितिज पर छाई, चौपाई की चुनरी धानी
प्रथम प्रहर लोरी बनकर, तुमने ही साथ सुलाया था
द्वितीय प्रहर तुम स्वप्नलोक में, विचरित मुक्तक मनमानी
तृतीय प्रहर चुपके से आकर, जो तुमने था छितराया
धवल-धवल शाश्वत शीतल, बिखरा तृण-तृण में तुषार प्रिये
कल तक इठलाती मुक्तक थी, अब खंड काव्य बनकर आई
अब चंचल बचपन बीत गया, यौवन ने ली है अंगड़ाई
चिरप्रेमी हूँ मिलना ही था, है शाश्वत प्रेम अमर अपना
पहना जब मौर मुकुट मैंने, दुलहन बनकर तुम इतराई
अक्षर, शब्दों, रस, भावों के, लाया आभूषण मैं कितने
उनमें से चुनकर कर लेना, तुम नित नूतन श्रंगार प्रिये
~~~~~इति~~~~~
सादर एवं साभार
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Thursday, January 8, 2009
नववर्ष फिर आया है
एक वर्ष भी बीत गया, नया वर्ष फिर आया है,
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है।
कितने पल हमसे रूठ गए, कितनी विभूतियाँ खोई हैं,
कितने शूल चुभे अन्तस में, कितनी मालाएँ पिरोई हैं,
मंदिर में कुछ पल बीत गए, श्मशान से कभी बुलावा है।
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पया है॥
भावों के आलोड़न से मन-आंगन में रची रंगोली,
इक पल सेज सजी दुल्हन की, दूजे पल मेंहदी धो ली,
सुख-दु:ख के बैठ हिंडोले नियति ने क्रम दोहराया है।
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है॥
जैसे भी कट गया सफ़र, क्या कल भी ऐसा कट पाएगा?
रिश्तों की बगिया में क्या फिरसे स्नेह सुमन खिल पाएगा?
फूल खिला जो डाली पर पतझड़ नें उसे मिटाया है।
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है॥
नाहक ही झगड़ा करते हम, कुछ भी अपना नहीं यहाँ ,
चन्द दिनों का अभिनय कर लें, क्या जाने कल कौन कहाँ ?
साँसों की लय कब टूटेगी यह जान न कोई पाया है?
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है॥
अभी बस चांद उगता है
अभी बस चांद उगता है, सामने रात बाकी है
बड़े अरमान से अब तक, प्यार में उम्र काटी है
पुष्प का खार में पलना, विरह की आग में जलना
चमन में खुशबु महकी सी, प्रीत विश्वास पाती है.
गगन के एक टुकडे़ को, हथेली में छिपाया है
दीप तारों के चुन चुनकर, आरती में सजाया है
भ्रमर के गीत सुनते ही, लजा जाती हैं कलियां भी
तुम्हारी राह तकते हैं, तुम्हें दिल में बसाया है.
तुम्हीं हो अर्चना मेरी, तुम्हीं हो साधना मेरी
प्यार के दीप जलते हैं, तुम्ही हो कामना मेरी
धरा से आसमां तक है यही विस्तार आशा का
तुम्हीं में मै समा जाऊँ, यही अराधना मेरी.
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विदा
डॉ. कविता वाचक्नवी
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आज दादी,चाचियों,बहना,बुआ ने
चावलों से,धान से, भर थाल
मेरे सामने ला कर दिया है,
मुठ्ठियाँ भर कर
जरा कुछ जोर से पीछे बिखेरो
और पीछे मुड़, प्रिये पुत्री !
नहीं देखो,
पिता बोले अलक्षित।
बाँह ऊपर को उठा दोनों
रची मेहंदी हथेली से
हाथ भर - भर दूर तक
छिटका दिया है
कुछ चचेरे औ’ ममेरे वीर मेरे
झोलियों में भर रहे
वे धान-दाने
भीड़ में कुहराम, आँसू , सिसकियाँ हैं
आँसुओं से पाग कर
छितरा दिए दाने पिता!
आँगन तुम्हारे
रोपना मत
सौंप कर
मैं जा रही हूँ.......।
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स्मृतियों का चक्रव्यूह --
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शहीदों की स्मृति
शहीदों की स्मृति पे आते रहेंगे
सदा पुष्प माला चढाते रहेंगे,
जिन्होंने दिया है अमन का बगीचा,
उन्हीं के चमन को सजाते रहेंगे,
दिया जान अपनी वतन के लिए जो,
चढ़े फांसी पर इस रतन के लिए जो,
वही धूल माथे लगाते रहेंगे,
शहीदों की स्मृति पे आते रहेंगे
सदा पुष्प माला चढाते रहेंगे,
आने न देंगे हम वैसे बाला को,
रहे प्राण जाए या काटे गला को,
मगर इस वतन को हम जाने न देंगे,
शहीदों की स्मृति पे आते रहेंगे
सदा पुष्प माला चढाते रहेंगे,
बलिदान कर देंगे प्राणों को अपने,
कोई आंच भारत पे आने न देंगे,
शहीदों की स्मृति पे आते रहेंगे
सदा पुष्प माला चढाते रहेंगे,
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वृक्ष का संदेश
मानव तू दानव है बना हुआ, भूल गया तू मानवपन,
भय के घनीभूत कोहरे में लिपटा सिमटा तेरा मन,
मदमत्त कुंजरे की भांति बेसुध हो रौंद रहा तू मानव को,
आहत तो तू होता ही नहीं , राहत है बस मिलती है तुझको|
लहू से प्यास बुझाने में लगा है तू, बस लहू से प्यास बुझाने में,
पर न हो सका कोई भी सफल, लहू से अपनी प्यास बुझाने में,
इस भव्य धरा पर न और कहर ढा,तू बस मेरी सुन, बस मेरी सुन,
हर क्षण, हर पल परोपकार में बिता, बीता जाता जीवन तू मेरी सुन|
सिकंदर था बड़ा भारी योद्धा, कहर ढाया था उसने धरा पर,
विश्व विजयी बना था वो, क़त्ल किए थे उसने लाखों सर,
हाथ मेरे दोनों बाहर रहें मेरे कफ़न से, जाते जाते कह गया था,
जग देखेगा, खाली हाथ जाता है सिकंदर, खाली हाथ आया था|
न सीख पाया तू उससे भी हे मानव कहाँ गया तेरा मानवपन,
औरों का चैन लूट रहा, अपनों की खरोंच से भी व्याकुल है तेरा मन,
अस्त्र-शास्त्र से वीक्षित, अस्थि पंजर है मानव के चहुँ और गिर रहे,
बेखबर खड़ा, करता नहीं उद्यम , परिवार के परिवार हैं उजड़ रहे|
तू मेरी सुन, तू मेरी सुन, मेरा हर पल हर क्षण परोपकार में बीतता ,
पथिकों को छाया, पथिकों को बसेरा, दुश्वास खींच जीवन दान देता,
फल जब मुझमे लग जाते नीचे झुक जाता और खाने को फल देता ,
मर कर काम आता लकडियाँ चूल्हा जलाती, तना फर्नीचर बन जाता |
मानव धरम भी तो सिखाता है तुझको हम हैं यहाँ भाई भाई,
सुखी बसे संसार सब दुखिया रहे न कोई इस सारे जग माहीं,
'वसुधैव कुटुम्बकम' का ही नारा हो बस सब के ही मन भाई,
जग में बैरी कोई भी नहीं सब जग है बस अपन के ही नाई |
Wednesday, January 7, 2009
कल क्या होगा
आज प्रिये मधु पी लो मन भर
देर करो ना पी लो सत्वर
आज बजा लो मन की वीणा
आज प्यार तुम कर लो मन भर
किसे पता है कल क्या होगा
आज खेल लो जितना चाहो
खेल खेल में मन बहला लो
पुष्पों से तुम केश सजा लो
प्रियतम को तुम गले लगा लो
किसे पता है कल क्या होगा
काल चक्र चल रहा निरंतर
खेल खिलाड़ी जायेंगे सब
मधु भी खोयेगा मादकता
पात्र रिक्त हो या न हो लेकिन
पीने वाले जायेंगे सब
पीलो जितनी चाहो अब
किसे पता है कल क्या होगा
आज मित्र से हाथ मिला लो
आज आँख भर दृश्य देख लो
आज आँख से आँख मिला लो
आज प्रिये तुम मन भर गा लो
जो करना है तुरंत कर लो
किसे पता है कल क्या होगा
मेरी ज़िन्दगी
ज़िन्दगी से हार के जो पूछा मैंने-
तू तो कहती है तू है मेरी,
फिर क्यों बनी है बैरन मेरी?
मैं चाहता हूँ हँसना, खुश रहना,
फिर क्यों रुलाती है मुझे बैरी?
मेरी ज़िन्दगी हँसी और बोली,
ज़िन्दगी हैं आपकी, बांदी नहीं हम!
हमसे रूठ के हँसेंगे? जाइए रुलायेंगे हम,
हमसे लड़े तो देखें, मचल जायेंगे हम?
दौडाया हमें तो देखिये फिर,
आपके हाथ भी न आयेंगे हम,
हम तो डूबेंगे, आपको भी ले डूबेंगे सनम,
गर प्यार से रखेंगे तो सिर पे बिठाएंगे हम,
ज़िन्दगी हैं आपकी, हम हैं तो आपको क्या गम?
बहुत जालिम शेह है मेरी ज़िन्दगी बेरहम,
क्या करें भाई! सिर्फ़ एक है ज़िन्दगी मेरी,
जिए जाते हैं उसी की बातों में आ के हम,
अब तो मरेंगे भी उसी की शर्तों पे हम,
उससे रूठ के कहिये तो कहाँ जायेंगे हम?
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वेदना विरह की
अधिकारी, बैँक ऑफ़ बड़ौदा,
तिलहर शाखा,
जिला-शाहजहाँपुर,उ0प्र0, मो.०९९३५७३४७३३
पहला विरह है यह पहली मिलन की,
लगता है यह विरह है धरती व गगन की;
खुशबू अब जाती रही अपनी चमन की,
जीवन मेँ न चमक रही अब कंचन की।
अकेलापन का ही दर्द अब रह सा गया,
मिलन की मिठास को विरह ही खा गया;
अभी-अभी बसंत था वो कहाँ खो गया,
देखते ही देखते अभी पतझड़ आ गया।
यादोँ की परिधि मेँ जिन्दगी सिमट गई,
धड़कन जो थी ज़िगर की वही विछड़ गई;
सुबह होने से पहले ही फिर शाम हो गई,
कली खिलते-खिलते अधखिली रह गई।
वेदना विरह की अब कम होने से रही,
मिलन की मिठास अब मिलने से रही;
जो बात है उसमेँ इस तस्वीर मेँ नहीँ,
सदाबहार शायद मेरी तकदीर मेँ नहीँ।
विरह के बाद फिर मिलन होगी कभी,
इसी आस से बैठा है सुखी डाल पे अलि;
बनेगेँ फूल फिर इस उपवन की कली,
आयेगी बहार तब जीवन जो मेँ मिली थी कभी।
सजन से कैसे होगी प्रीत?
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प्रेमी को मिलने नहीं देती, अजब है जग की रीत।
सजन से कैसे होगी प्रीत?
सच्चा प्यार हुआ हो उसके, साथ कहाँ रहते हैं?
जीवन तो बस इक समझौता, हार कहूँ या जीत।
सजन से कैसे होगी प्रीत?
संग जिसके दिन-रात है जीना, उससे क्यों अनबन है।
नैन मिले प्रियतम से वह पल, बन जाये संगीत।
सजन से कैसे होगी प्रीत?
परम्परा के व्यूह में फँसकर, होते लोग हलाल।
कहते हो रक्षक है काँटा, नहीं सुमन का मीत।
सजन से कैसे होगी प्रीत?
Tuesday, January 6, 2009
"ज़िंदगी एक उत्सव"
ज़िंदगी एक उत्सव है,
चलो ज़िंदगी का जशन मनाया जाए |
सुबह किसी रोती आँख का आँसू पोंछ,
शाम किसी भूखे को भरपेट खिलाया जाए|
किसी मस्जिद में कोई भजन गाकर,
किसी मंदिर से अज़ान लगाया जाए|
कँही किसी गुरु के द्वारे पे गीता पढ़कर,
वज़ु कर गिरजे में जाया जाए|
कुछ हँसी तेरी कुछ खुशी मेरी मिला,
एक और नया गीत गाया जाए,
हर ज़िंदगी को ज़िंदगी की दुआ देकर,
एक स्वर्ग यहीँ बनाया जाए|
ज़िंदगी एक उत्सव है,
चलो ज़िंदगी का जशन मनाया जाए |
06 Jan 2008
Monday, January 5, 2009
माँ
जब धूप पसर जाती
रसोईघर के बाहर
मैं वहां बैठ
’अ’ से अम्मा
लिखा करता
माँ धुएँ के कोहरे में
गुनगुनाती
आटा गूंथती
रोटियां बेलती
और साथ ही बनाती
आटे की छोटी-छोटी गोलियां
फिर उन्हें
आँगन में फैला देती
एक-दो-तीन
कई चिडियां आती
चहचहाती
गोलियां चुगती
सजीव हो जाते
बेलन, कलछी, चिमटा
अग्नि नृत्य करती
चूल्हे की मुंडेर पर
रसोईघर जलसाघर हो जाता
.
अब न घर में माँ हैं
न शहर में चिडियां
बस केवल
आटे की गोलियां बची है
जब कभी तन्हा होता हूँ
कुछ गोलियां बिखेर देता हूँ
और माँ
चिडियां बन
मन के आँगन में
उतर आती है
Friday, January 2, 2009
कितना है दम चराग़ में तब ही पता चले
फानूस की न आस हो , उस पर हवा चले
फानूस = काँच का कवर
लेता हैं इम्तिहान गर , तो सब्र दे मुझे
कब तक किसी के साथ कोई रहनुमा चले
नफ़रत की आँधियाँ कभी, बदले की आग में
अब कौन लेके झंडा –ए- अमनो-वफ़ा चले
चलना अगर गुनाह है , अपने उसूल पर
सारी उमर सज़ाओं का ही सिल सिला चले
खंज़र लिए खड़े हो गर हाथों में दोस्त ही
"श्रद्धा" बताओ तुम वहाँ फ़िर क्या दुआ चले