Thursday, February 12, 2009

आस

- प्रताप नारायण सिंह

http://anubhutiyan-pratap.blogspot.com/

http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/P/PratapNarayanSingh/PratapNarayanSingh_main.htm

http://www.anubhuti-hindi.org/kavi/p/pratapnarayan_singh/index.htm

बस इतना ही करना कि
मेरे अचेतन मन में जब तुम्हारे होने का भान उठे
और मैं तुम्हे निःशब्द पुकारने लगूँ
तुम मेरी पुकार की प्रतिध्वनि बन जाना

बस इतना ही करना कि
सर्द रातों में जब चाँद अपना पूरा यौवन पा ले
और मेरा एकाकीपन उबलने लगे
तुम मुझे छूने वाली हवाओं में घुल जाना

बस इतना ही करना कि
स्मृति की वादियों में जब ठंडी गुबार उठे
और मेरे प्रेम का बदन ठिठुरने लगे
तुम मेरे दीपक कि लौ में समा जाना

बस इतना ही करना कि
सावन में जब उमस भरी पुरवाई चले
और मेरे मन के घावों में टीस उठने लगे
तुम अपने गीतों के मरहम बनाना

बस इतना ही करना कि
पीड़ा (तुमसे न मिल पाने की ) का अलख जब कभी मद्धिम पड़ने लगे
और मैं एक पल के लिए भी भूल जाऊं
तुम मेरे मन की आग बन जाना

बस इतना ही करना कि
मेरी साँसें जब मेरे सीने में डूबने लगे
और मैं महा-प्रयाण की तैयारी करने लगूँ
तुम मिलन की आस बन जाना.

Wednesday, February 11, 2009

बात सचमुच में निराली हो गईं

- नीरज गोस्वामी
http://ngoswami.blogspot.com

बात सचमुच में निराली हो गईं
झूट जब बोला तो ताली हो गई
फेर ली जाती झुका कर थी कभी
उस शरम से आंख खाली हो गई
मिल गइ उनको इज़ाज़त जुल्म की
अपनी तो फ़रियाद गाली हो गई
इक नदी बहती कभी थी जो यहां
बस गया इंसा तो नाली हो गई
ये असर हम पे हुआ इस दौर का
भावना दिल की मवाली हो गई
डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
वो समझ पूजा की थाली हो गई
हाथ में क़ातिल के ‘‘नीरज’’ फूल है
बात अब घबराने वाली हो गई

खुले आसमान के नीचे हूँ मैं

- राशी चतुर्वेदी
कविता - http://poetrika.blogspot.com
my art - http://rashichaturvedi.blogspot.com

खुले आसमान के नीचे हूँ मैं
अपनी मर्जी का मालिक हूँ मैं
दिल जो चाहे करता हूँ मैं
खुश हूँ की आज़ाद हूँ मैं।
सुबह से लेकर शाम तक
काम के बोझ से घायल हूँ मैं
वक़्त ने ऐसा दौडाया है मुझे
पर खुश हु मैं आज़ाद हूँ मैं ।
गर ये रिश्तों के बंधे धागे
और ये काम ज़िम्मेदारी के नाते
कितनो से किए ये कसमे ये वादे
कितने मुनाफे और कितने घाटे
ये सब अगर ज़ंजीर नहीं हैं
गुलाम बनाये बैठी नहीं हैं
हर ओर से मुझको जकडे नहीं हैं
तो सही है शायद आज़ाद हूँ मैं
खुश हूँ मैं आज़ाद हूँ मैं।


सोने का हिरन

- प्रतिभा सक्सेना.

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया!
वनवास लिया तो भी तो उदासी ना भया,
कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया!
मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा!
कहीं सोने की तू ही न बन जाये री सिया!

अनहोनी ना विचारी जो था आँखों का भरम,
छोड़ आया महलों को ,काहे ललचा रे, मन !
कंद-मूल फल-फूल तुझे काहे न रुचे,
धन वैभव की चाह कहीं रखी थी छिपा,
सोने रत्नों की कौंध आँखें भर ले , सिया !

घर-द्वार का सपन काहे पाला मेरे मन !
जब लिखी थी कपाल में जनम की भटकन,
छोटे देवर को कठोर वचन बोले थे वहाँ,
अब लोगों में पराये दिन रात पहरा,
चुपचाप यहाँ सहेगी पछतायेगा हिया!

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया !