Tuesday, July 28, 2009
गीत: शब्द वही हैं ....
शब्द वही हैं, बदल गई है केवल अर्थों की भाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
हवा चूमती थी पागल सी रेतीले नदिया तट को,
जाने किसने झटका था चंदा की आवारा लट को ।
झूम-झूम नर्तन करते थे, नीलगिरि के उंचे पेड़-
बगिया मुस्काई थी सुन-सुन, कर अनजानी आहट को।
अनगिन बिखरे तारों का शामें हंस स्वागत करती थीं ।
नील, निरभ्र, शून्य नभ में नित चटकीले रंग भरती थीं।
पीड़ा के बादल ने आंसू से लिख डाली परिभाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
जिस दिन बहुत दूर से हमने झलक तुम्हारी पाई थी ।
जिस दिन हमको देख तुम्हारी आंखें भी शरमाई थीं ।
नागपाश जैसी वेणी में बंध-हमने आकाश छुआ-
तन-मन में बिजली सी कौंधी-यौवन की अंगड़ाई थी।
श्वासों के संगम में हमको चेतनता के रंग मिले ।
उड़ते फिरते वनपाखी-से, रूप तुम्हारे संग मिले ।
मन के शिलालेख पर जाने किसने है यह दर्द तराशा ?
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
वीराने जीवन को क्षण भर साथ तुम्हारा मिल जाए ।
भटक रही लहरों को जैसे एक किनारा मिल जाए ।
नव पल्लव का स्वागत करने मचल उठें सारी कलियां-
पंखुरियों पर प्रणय गीत हो ऐसा फूल कहीं खिल जाए।
पूनम की रातों में हम-तुम साथ रहें-बस पास रहें ।
और तुम्हारी पलकों में ही खिले खिले मधुमास रहें ।
इस निर्मम दुनिया में मैंने की जब सुख की अभिलाषा ।
छले हुए स्वप्नों में खोई सूनी आंखों की आशा ।
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सादर-
आनंदकृष्ण, जबलपुर
मोबाइल : 09425800818
http://hindi- nikash.blogspot. com
Sunday, March 29, 2009
तुम याद आये
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
उम्र के अंतिम चरण में, अल्लहड़, मस्त जवानी बनकर.
जब देखे थे, तुमने हमने, अपने कल के सुंदर सपने.
बह रहा है, आज सब कुछ यादों की रवानी बनकर
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
मैं, कर्तब्यों के झूले में झूल रही थी, अंखिया मीचे
कुल, कुटुंब प्रमुख हुए थे, मैं अदृश्य, तू कही पीछे
आज तू सम्मुख हुआ है , बीते कल की निशानी बनकर
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
मिलना या बेशक न मिलना, मिल कर न दे देना प्यास .
आसान नहीं प्रेम पिपासा ले कर जीना, मीरा सी दिवानी बनकर
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
उम्र के अंतिम चरण में, अल्लहड़, मस्त जवानी बनकर.
Monday, March 23, 2009
कवि की व्यथा
अविनाश अगरवाल, बोस्टन
रविवार सुबह देखा , मौसम का रंग था सुहाना
देख वसंत की मस्ती , हमारा भी दिल हुआ दीवाना
लगा आज हमारी कविता का होगा श्रीगणेश
कवियों की सूची में कहीं , हमारा भी होगा समावेश
क़दमों ने था अभी , लेखनी की ओर मुख मोडा
श्रीमती ने पकडाया , हाथों में सीरियल का कटोरा
कहा पतिधर्म निभाओ
बेटे को सीरियल खिलाओ
अब हाथ में सीरियल का चम्मच , मन में भावनाओं का अम्बार था
महाकाव्य रचने का सपना , जैसे आज साकार था
मन के भावों का अंकुर , बस अभी फूटा ही था
कल्पनाओं के घोडों नें अभी , कुछ दूर दौड़ा ही था .
तभी आई श्रीमती की दहाड़ , सीरियल खिला दिया क्या ,
आधी घंटे पहले दिया था ,ख़त्म करा दिया क्या ,
उत्तर में कहा मैंने , सीरियल ही खिला रहा हूँ
बस साथ ही साथ कुछ, पंक्तियाँ गुण रहा हूँ
अरे फिर वही तुम्हारी कविता , क्या नहीं तुम्हें कोई काम दूजा ?
करते नहीं क्यों तुम रविवार का , नहाना , धोना और पूजा ?
पता है तुम्हें , अब तुमसे लोग क्यों कटने लगे हैं ,
दुश्मनों की तो छोड , दोस्त भी तुम्हारे फ़ोन से डरने लगे हैं .
लगता है उन्हें , कमबख्त का फ़ोन यदि आएगा ,
ज़रूर फिर अपनी कोई बेतुकी कविता चिपकायेगा .
देनी चाही हमने सफाई , कवी का ऐसा बुरा नहीं हश्र है ,
जैसे तुम्हें अपने सतीत्व पर , हमें अपनें कवित्व पर गर्व है .
बेकार की ड्रामेबाजी छोडो , अभी बेड भी नया लाना है
चौदह तारीख को मेहमान आयेंगे , उन्हें कहाँ सुलाना है .
अब इस संसारशास्त्र के बीच , कविता हो गयी गुम
ज़िन्दगी लगी पुनः , रोज के ताने बाने बुन
सच कहता हूँ यारों , अब आई ऐसी घडी है
जीवन अर्थ का पीछा करने की अनवरत कड़ी है .
यूँही दफन हो गयी , हजारों कवियों की बेनाम रचनायें ,
इन दूध , सीरियल के डब्बों में
इनकी खनखनाहट है बस अब गूँजती
शक्कर और गेहूं की बोरियों में
इन्हीं किसी में तुम्हें , कवी का टूटा ह्रदय मिलेगा
कुछ अधूरी सी नज़्म मिलेगी , कुछ खोया अंदाज़ मिलेगा .
पर हिम्मत न हार साथियों , कविता लिखना न छोर देना तुम
वक़्त के अभाव से हालात के दबाव में , कभी हताश न होना तुम
जीवन के थपेडों से न डरने वाला ही वीर कवी है
सुप्त राष्ट्र में स्फूर्ति लौटा दे , अमिट उसीकी छवि है
कवी की वाणी में है शक्ति , जो विश्व हिला सकता है
कौन जाने तुममें से ही पुनः कोई , निराला या दिनकर हो सकता है .
Thursday, February 12, 2009
आस
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http://www.anubhuti-hindi.org/kavi/p/pratapnarayan_singh/index.htm
मेरे अचेतन मन में जब तुम्हारे होने का भान उठे
और मैं तुम्हे निःशब्द पुकारने लगूँ
तुम मेरी पुकार की प्रतिध्वनि बन जाना
बस इतना ही करना कि
सर्द रातों में जब चाँद अपना पूरा यौवन पा ले
और मेरा एकाकीपन उबलने लगे
तुम मुझे छूने वाली हवाओं में घुल जाना
बस इतना ही करना कि
स्मृति की वादियों में जब ठंडी गुबार उठे
और मेरे प्रेम का बदन ठिठुरने लगे
तुम मेरे दीपक कि लौ में समा जाना
बस इतना ही करना कि
सावन में जब उमस भरी पुरवाई चले
और मेरे मन के घावों में टीस उठने लगे
तुम अपने गीतों के मरहम बनाना
बस इतना ही करना कि
पीड़ा (तुमसे न मिल पाने की ) का अलख जब कभी मद्धिम पड़ने लगे
और मैं एक पल के लिए भी भूल जाऊं
तुम मेरे मन की आग बन जाना
बस इतना ही करना कि
मेरी साँसें जब मेरे सीने में डूबने लगे
और मैं महा-प्रयाण की तैयारी करने लगूँ
तुम मिलन की आस बन जाना.
Wednesday, February 11, 2009
बात सचमुच में निराली हो गईं
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बात सचमुच में निराली हो गईं
झूट जब बोला तो ताली हो गई
फेर ली जाती झुका कर थी कभी
उस शरम से आंख खाली हो गई
मिल गइ उनको इज़ाज़त जुल्म की
अपनी तो फ़रियाद गाली हो गई
इक नदी बहती कभी थी जो यहां
बस गया इंसा तो नाली हो गई
ये असर हम पे हुआ इस दौर का
भावना दिल की मवाली हो गई
डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
वो समझ पूजा की थाली हो गई
हाथ में क़ातिल के ‘‘नीरज’’ फूल है
बात अब घबराने वाली हो गई
खुले आसमान के नीचे हूँ मैं
कविता - http://poetrika.blogspot.com
my art - http://rashichaturvedi.blogspot.com
खुले आसमान के नीचे हूँ मैं
अपनी मर्जी का मालिक हूँ मैं
दिल जो चाहे करता हूँ मैं
खुश हूँ की आज़ाद हूँ मैं।
सुबह से लेकर शाम तक
काम के बोझ से घायल हूँ मैं
वक़्त ने ऐसा दौडाया है मुझे
पर खुश हु मैं आज़ाद हूँ मैं ।
गर ये रिश्तों के बंधे धागे
और ये काम ज़िम्मेदारी के नाते
कितनो से किए ये कसमे ये वादे
कितने मुनाफे और कितने घाटे
ये सब अगर ज़ंजीर नहीं हैं
गुलाम बनाये बैठी नहीं हैं
हर ओर से मुझको जकडे नहीं हैं
तो सही है शायद आज़ाद हूँ मैं
खुश हूँ मैं आज़ाद हूँ मैं।
सोने का हिरन
- प्रतिभा सक्सेना.
काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया!
वनवास लिया तो भी तो उदासी ना भया,
कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया!
मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा!
कहीं सोने की तू ही न बन जाये री सिया!
अनहोनी ना विचारी जो था आँखों का भरम,
छोड़ आया महलों को ,काहे ललचा रे, मन !
कंद-मूल फल-फूल तुझे काहे न रुचे,
धन वैभव की चाह कहीं रखी थी छिपा,
सोने रत्नों की कौंध आँखें भर ले , सिया !
घर-द्वार का सपन काहे पाला मेरे मन !
जब लिखी थी कपाल में जनम की भटकन,
छोटे देवर को कठोर वचन बोले थे वहाँ,
अब लोगों में पराये दिन रात पहरा,
चुपचाप यहाँ सहेगी पछतायेगा हिया!
काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया !