Wednesday, February 11, 2009

सोने का हिरन

- प्रतिभा सक्सेना.

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया!
वनवास लिया तो भी तो उदासी ना भया,
कुछ माँगे बिना जीने का अभ्यासी ना भया!
मृगछाला सोने की तो मृगतिषणा रही,
तू भी जान दुखी हरिनी के मन की विथा!
कहीं सोने की तू ही न बन जाये री सिया!

अनहोनी ना विचारी जो था आँखों का भरम,
छोड़ आया महलों को ,काहे ललचा रे, मन !
कंद-मूल फल-फूल तुझे काहे न रुचे,
धन वैभव की चाह कहीं रखी थी छिपा,
सोने रत्नों की कौंध आँखें भर ले , सिया !

घर-द्वार का सपन काहे पाला मेरे मन !
जब लिखी थी कपाल में जनम की भटकन,
छोटे देवर को कठोर वचन बोले थे वहाँ,
अब लोगों में पराये दिन रात पहरा,
चुपचाप यहाँ सहेगी पछतायेगा हिया!

काहे राम जी से माँग लिया सोने का हिरन,
सोनेवाली लंका में अब रह ले सिया !

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