Sunday, March 29, 2009

तुम याद आये

अनु बंसल , मिलवाकी

इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
उम्र के अंतिम चरण में, अल्लहड़, मस्त जवानी बनकर.
सहसा फडफ़डाते है जीवन पुस्तक के कुछ पिछले पन्ने.
जब देखे थे, तुमने हमने, अपने कल के सुंदर सपने.
बह रहा है, आज सब कुछ यादों की रवानी बनकर
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.

मैं, कर्तब्यों के झूले में झूल रही थी, अंखिया मीचे
कुल, कुटुंब प्रमुख हुए थे, मैं अदृश्य, तू कही पीछे
आज तू सम्मुख हुआ है , बीते कल की निशानी बनकर
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
पुनर्जनम बस एक भरोसा, होगा तुमसे मेरा साथ .
मिलना या बेशक न मिलना, मिल कर न दे देना प्यास .
आसान नहीं प्रेम पिपासा ले कर जीना, मीरा सी दिवानी बनकर
इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.

इतिहास तू पुनः जी उठा है, नूतन एक कहानी बनकर.
उम्र के अंतिम चरण में, अल्लहड़, मस्त जवानी बनकर.

Monday, March 23, 2009

कवि की व्यथा

अविनाश अगरवाल, बोस्टन


रविवार सुबह देखा , मौसम का रंग था सुहाना
देख वसंत की मस्ती , हमारा भी दिल हुआ दीवाना
लगा आज हमारी कविता का होगा श्रीगणेश
कवियों की सूची में कहीं , हमारा भी होगा समावेश

क़दमों ने था अभी , लेखनी की ओर मुख मोडा
श्रीमती ने पकडाया , हाथों में सीरियल का कटोरा
कहा पतिधर्म निभाओ
बेटे को सीरियल खिलाओ
अब हाथ में सीरियल का चम्मच , मन में भावनाओं का अम्बार था
महाकाव्य रचने का सपना , जैसे आज साकार था
मन के भावों का अंकुर , बस अभी फूटा ही था
कल्पनाओं के घोडों नें अभी , कुछ दूर दौड़ा ही था .

तभी आई श्रीमती की दहाड़ , सीरियल खिला दिया क्या ,
आधी घंटे पहले दिया था ,ख़त्म करा दिया क्या ,
उत्तर में कहा मैंने , सीरियल ही खिला रहा हूँ
बस साथ ही साथ कुछ, पंक्तियाँ गुण रहा हूँ

अरे फिर वही तुम्हारी कविता , क्या नहीं तुम्हें कोई काम दूजा ?
करते नहीं क्यों तुम रविवार का , नहाना , धोना और पूजा ?
पता है तुम्हें , अब तुमसे लोग क्यों कटने लगे हैं ,
दुश्मनों की तो छोड , दोस्त भी तुम्हारे फ़ोन से डरने लगे हैं .
लगता है उन्हें , कमबख्त का फ़ोन यदि आएगा ,
ज़रूर फिर अपनी कोई बेतुकी कविता चिपकायेगा .
देनी चाही हमने सफाई , कवी का ऐसा बुरा नहीं हश्र है ,
जैसे तुम्हें अपने सतीत्व पर , हमें अपनें कवित्व पर गर्व है .
बेकार की ड्रामेबाजी छोडो , अभी बेड भी नया लाना है
चौदह तारीख को मेहमान आयेंगे , उन्हें कहाँ सुलाना है .

अब इस संसारशास्त्र के बीच , कविता हो गयी गुम
ज़िन्दगी लगी पुनः , रोज के ताने बाने बुन
सच कहता हूँ यारों , अब आई ऐसी घडी है
जीवन अर्थ का पीछा करने की अनवरत कड़ी है .

यूँही दफन हो गयी , हजारों कवियों की बेनाम रचनायें ,
इन दूध , सीरियल के डब्बों में
इनकी खनखनाहट है बस अब गूँजती
शक्कर और गेहूं की बोरियों में
इन्हीं किसी में तुम्हें , कवी का टूटा ह्रदय मिलेगा
कुछ अधूरी सी नज़्म मिलेगी , कुछ खोया अंदाज़ मिलेगा .

पर हिम्मत न हार साथियों , कविता लिखना न छोर देना तुम
वक़्त के अभाव से हालात के दबाव में , कभी हताश न होना तुम
जीवन के थपेडों से न डरने वाला ही वीर कवी है
सुप्त राष्ट्र में स्फूर्ति लौटा दे , अमिट उसीकी छवि है

कवी की वाणी में है शक्ति , जो विश्व हिला सकता है
कौन जाने तुममें से ही पुनः कोई , निराला या दिनकर हो सकता है .