Wednesday, December 31, 2008

तन्हाई की दर्द से शादी है

- विनय विशेष
http://www.vinayvishesh.blogspot.com/
छले गये जो उजालों की घात में
अंधेरों से लिपट कर रोयेगें रात में

रोशनी मेहमां थी अंधेरों की रात भर
सुबह सूरज ले के आयी सौ्गात में

भीगें सहरा को धूप मरहम सी लगी
फ़फ़ौले हो गये थे बरसात में

फ़ंसी मछली हंसा परिन्दा
भरोसा और आदमी की जात में

नदी समा गई समन्दर में
कनारे उलझे रहे औकात में

तन्हाई की दर्द से शादी है
सितारों तुम भी आना बारात में

पारदर्शिता

- सुजाता दुआ
sangharshhijiwan.blogspot.com

लोग अक्सर बनाते हैं ...
शब्दों के खूबसूरत घर
फिर उसे सजाते हैं ...
उपमाओं से ......
और खुश हो जाते हैं ...
अपनी वाक्कौशल पर


पता नहीं .....
नादान होते हैं या अनजान
जो इतना भी नहीं जानते
बिना भाव के शब्द
खोखले होते हैं ....
इतने पारदर्शी की
उनमें देखा जा सकता है
आर -पार की फिर
उन्हें (लोगों को ).....
आजमाने की
जरूरत भी नहीं रहती

रास्तों ने मंज़िलों से दूर जाने को कहा

- घनश्याम गुप्ता

रास्तों ने मंज़िलों से दूर जाने को कहा
इश्क में जैसी रवायत है निभाने को कहा

दो सुख़न उसने कड़ाई से कहे दो प्यार से
कुछ रुलाने को कहा तो कुछ लुभाने को कहा

किस तरह उसकी हिदायत पर अमल करता बशर
याद रखने को कहा फिर भूल जाने को कहा

हल्क़ए-अय्यार में बेलौस रहना ख़ूब था
किस तज़ुर्बेकार ने यां दिल लगाने को कहा

तुम फ़क़त हो बेमुरव्वत ऐसा मैंने कब कहा
मैंने हरदम नागवारा कुल ज़माने को कहा

बिंध गया अपनी रजा से जब नफस के तार में
ख़ुद-ब-ख़ुद तस्बीह ने नायाब दाने को कहा

दार पर अव्वल चढ़ाया फिर रसन की बात की
दम निकल जाने से पहले मुस्कराने को कहा

दिल ने यूं तो बहाने बनाए बहुत

अमर ज्योति - अमर ज्योति'नदीम'

धूल को चंदन, ज़मीं को आसमाँ कैसे लिखें?
मरघटों में ज़िंदगी की दास्तां कैसे लिखें?

खेत में बचपन से खुरपी फावड़े से खेलती,
उँगलियों से खू़न छलके, मेंहदियां कैसे लिखें?

हर गली से आ रही हो जब धमाकों की सदा,
बाँसुरी कैसे लिखें; शहनाइयां कैसे लिखें?

कुछ मेहरबानों के हाथों कल ये बस्ती जल गई;
इस धुएँ को घर के चूल्हे का धुआँ कैसे लिखें?

दूर तक काँटे ही काँटे, फल नहीं, साया नहीं।
इन बबूलों को भला अमराइयां कैसे लिखें

रहज़नों से तेरी हमदर्दी का चरचा आम है;
मीर जाफर! तुझको मीर-ऐ-कारवाँ कैसे लिखें?

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दिल ने यूं तो बहाने बनाए बहुत;
फिर भी तुम बारहा याद आए बहुत।

दर्द का एहतराम हमने पूरा किया;
खिलखिलाए बहुत, मुस्कराए बहुत।

खण्डहरों में कभी कोई ठहरा नहीं;
पर इन्हें देखने लोग आए बहुत।

हम तो बदनाम मयक़श थे, चलते रहे;
वाइज़ों के क़दम डगमगाए बहुत।

धूप से यूं न डर; घर से बाहर निकल,
राह में हैं दरख़्तों के साए बहुत।

बाकी न तेरी याद की परछाइयां रहीं

- देवी नंगरानी

बाकी न तेरी याद की परछाइयां रहीं
बस मेरी ज़िंदगी में ये तन्हाइयां रहीं.

डोली तो मेरे ख़्वाब की उठ्ठी नहीं, मगर
यादों में गूंजती हुई शहनाइयां रहीं.

बचपन तो छोड़ आए थे, लेकिन हमारे साथ
ता- उम्र खेलती हुई अमराइयां रहीं.

चाहत, ख़ुलूस, प्यार के रिश्ते बदल गए
जज़बात में न आज वो गहराइयां रहीं.

अच्छे थे जो भी लोग वो बाक़ी नहीं रहे
‘देवी’ जहां में अब कहां अच्छाइयां रहीं.१३

ज़मीर कहता है गुरबों के तरफ़दार बनो

-ऋतेश त्रिपाठी

ज़मीर कहता है गुरबों के तरफ़दार बनो,
तजुर्बा कहता है छोड़ो भी समझदार बनो,

चलो ये माना कि धरती यहाँ की बंजर है,
तुम्हें ये किसने कहा था कि जमींदार बनो,

हरेक घर की दीवारें यहाँ पे सेंध लगीं,
ज़रा सा सोच-समझ लो तो पहरेदार बनो,

हैं कागज़ों के मकाँ आतिशों की बस्ती में,
हवा की बात करो और गुनहगार बनो,

किसीको ये भी पता है कि मुल्क गिरवी है,
उन्होंने सबसे कहा है कि शहरयार बनो,

हरेक रिश्ता यहाँ ख़ून-ए-जिगर माँगे है,
अगर ये रिश्ते निभाने हैं अदाकार बनो,

वो नासमझ है अभी उसका दिल भी टूटेगा,
यही मुफ़ीद है तुम उसके गमगुसार बनो...

24.12.2008

मेरी एक कविता

-कुसुम सिन्हा

महसूस करती हूं मैं
बडी गहराई से कि
मेरा मन आब एक बू‌ढा बरगद है
सूखा बेजान उदासीन
लेकिन पहले एसा नहीं था
मेरी घनी डालों में
झूले डाल लडकियां
गाती थीं रसभरे गीत
हंसी ठिटोली आैर प्यार
चहचहाहट से भर जाती थी डालियां
शाम होते घर लैाटते
चिडियों का झुन्ड
अपने बच्चों को प्यार करते
गाते थे शायद कोई गीत या लोरी
झूमती डालियों के साथ
मैं भी गाने लगता था
कैसा सुख कैसी त्रृप्ति
मन में उठती प्यार की हिलोर
पर अब एैसा नहीं है
मेरी कुछ डालियां सूखकर गिरी
कुछ गिरने को तैयार
फिर भी शाम होते घर लैाटती
चिडियों के झुन्ड
मन में एक आस जगाते हैं
शायद वे मेरी घनी डालों पर बैठें
घोसले बनांए गांए
पर नहीं वे गाती गाती आगे बढ जाती है
पहले सी छांह जो नहीं
पत्ते भी कम ही बचे हैं
फिर भी जीना है
क्योंकि यही तो जीवन है

भ्रम

- सुधा ओम ढींगरा
http://www.vibhom.com/blogs/

शंकर को ढूंढने चले थे
हनुमान मिल गए;
क्या-क्या बदल के रूप- अनजान मिल गए.

एक दूसरे से पहले
दर्शन की होड़ में;
अनगिनत लोग रौंदते- इन्सान मिल गए.

माथे लगा के टीका
भक्तों की भीड़ में;
भक्ति की शिक्षा देते- शैतान मिल गए.

अपने ही अंतर्मन तक
जिसने कभी भी देखा;
दूर दिल में हँसते हुए- नादान मिल गए.

तोड़ा था पुजारी ने
मन्दिर के भरम को;
जब सिक्के लिए हाथ में- बेईमान मिल गए.

कुछ रिसते झोंपड़ों में
जब झाँक कर देखा;
मानुषी भेस में स्वयं- भगवान मिल गए.

अपने को समझतें हैं
जो ईश्वर से बड़कर;
संसार को भी कैसे-कैसे- विद्वान् मिल गए.

किस पर करे विश्वास
आशंकित सी सुधा;
देवता के रूप में जब- हैवान मिल गए.

जाने सूरज जलता क्यों है

अनूप भार्गव
http://anoopbhargava.blogspot.com/

जाने सूरज जलता क्यों है
इतनी आग उगलता क्यों है

रात हुई तो छुप जाता है
अंधियारे से डरता क्यों है

सुबह का निकला घर न आया
आवारा सा फ़िरता क्यों है

सुबह शाम और दोपहरी में
अपनें रंग बदलता क्यों है

अगर सुबह को फ़िर उगना है
तो फ़िर शाम को ढलता क्यों है

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१.
जज़्बातों की उठती आँधी
हम किसको दोषी ठहराते
लम्हे भर का कर्ज़ लिया था
सदियां बीत गई लौटाते ।

२.
वो लड़ना झगड़ना रूठना और मनाना
किस्से सभी ये पुराने हुए हैं
वो कतरा के छुपने लगे हैं हमीं से
महबूब मेरे सयाने हुए हैं ।

हैप्पी न्यू इयर

सुनीता शानू
http://shanoospoem.blogspot.com/

हमने कहा, जानेमन हैप्पी न्यू इयर
हँसकर बोले वो सेम टू यू माई डियर

पहले बस इतना बतलाओ
आज नया क्या है समझाओ

नये साल पर ही करती हो मीठी-मीठी बातें
चलो रहने भी दो हमको चूना मत लगाओ

कब मिली है हमको बिरयानी
अपनी तो वही रोटी और दाल है

सब कुछ तो है वही पुराना
फ़िर भी कहती हो नया साल है

अच्छा छोड़ो बेकार की बातें
बात करो कुछ क्लीयर

तुम भी मनाओ जश्न आज
हमे भी लेने दो बीयर

नये साल का जश्न
कुछ ऎसा हम मनायें

भूल कर सारे गिले शिकवे
पड़ौसन को भी बुलायें

बीयर तक तो श्रीमान जी की
बात समझ में आई

मगर पडौसन को लाने की
कैसी शर्त लगाई

फ़िर भी दिल पर काबू कर के
पौंछे हमने टियर्स

देकर हाथ में चाय का प्याला
बोले उनको चियर्स

नही मनाना हमे नया साल
रहने दो डियर

टकरायेंगे बस चाय के प्याले
और कहेंगे चियर्स...

कोई दीवाना कहता है

http://www.kumarvishwas.com/

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है !
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !!
मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है !
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !!

मोहब्बत एक एहसासों की पावन सी कहानी है !
कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !!
यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं !
जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !!

समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता !
यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !!
मेरी चाहत को दुल्हन बना लेना, मगर सुन ले !
जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !!

Sunday, December 28, 2008

मैं हूँ तीस्ता नदी

- शार्दूला
http://www.anubhuti-hindi.org/dishantar/s/shardula/index.htm
http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/S/ShardulaNogja/ShardulaNogja_main.htm

मैं हूँ तीस्ता नदी, गुड़मुड़ी अनछुई
मेरा अंग अंग भरा, हीरे-पन्ने जड़ा
मैं पहाड़ों पे गाती मधुर रागिनी
और मुझ से ही वन में हरा रंग गिरा ।
'पत्थरों पे उछल के संभलना सखि'
मुझ से हंस के कहा इक बुरुंश फूल ने
अपनी चांदी की पायल मुझे दे गयी
मुझेसे बातें करी जब नरम धूप ने ।
मैं लचकती चली, थकती, रुकती चली
मेरे बालों को सहला गयी मलयजें
मुझ से ले बिजलियाँ गाँव रोशन हुए
हो के कुर्बां मिटीं मुझ पे ये सरहदें ।
कितने धर्मों के पाँवों मैं धोती चली
क्षेम पूछा पताका ने कर थाम के
घंटियों की ध्वनि मुझ में आ घुल गयी
जाने किसने पुकारा मेरा नाम ले ।
झरने मुझसे मिले, मैं निखरती गयी
चीड़ ने देख मुझ में संवारा बदन
आप आये तो मुझ में ज्यों जां आ गयी
आप से मिल के मेरे भरे ये नयन ।
मैं हूँ तीस्ता नदी, गुमुड़ी अनछुई !

शार्दुला, ०७ जनवरी ०८

अथर्व, तुम्हारा स्वागत है,!

अभिनव शुक्ला
http://kaviabhinav.com/default.aspx
(
यह रचना उन्होंने अपने नवजात शिशु अथर्व को सम्बोधित करते हुए लिखी है. )

आओ आकर जग को अपनी खुशबू से महकाओ तुम,
मानवता के बाग़ में खिलते हुए पुष्प बन जाओ तुम,
चित्र बनाओ बदल पर जीवन की सुन्दरताई के,
रंग भरो कोमलता के, दृढ़ता के औ' सच्चाई के,
सदा प्रतिष्ठा जनित तुम्हारी कीर्ति जगत में व्याप्त रहे,
जो देवों को भी दुर्लभ स्थान वो तुमको प्राप्त रहे,
हंसो और मुस्काओ खिलकर, खुलकर सबका मान करो,
कभी घृणा न करो किसी से प्रेम, पुण्य, तप दान करो,
देखो पलक बिछाए बैठी दुनिया तुमसे बोल रही,
अथर्व तुम्हारा स्वागत है,

न तो मन मन में पीड़ा थी न तन तन में तबाही थी,
ये दुनिया वैसी तो न है जैसी हमनें चाही थी,
अभी बहुत से पोखर ताल शिकारे सूखे बैठे हैं,
अभी बहुत से सूरज चाँद सितारे भूखे बैठे हैं,
अभी बहुत सी नदियों में ज़हरीली नफरत बहती है,
रहती है खामोश मगर ये धरा बहुत कुछ कहती है,
देखो तुम भी देखो कट्टरता की शाखा बढ़ी हुयी,
और तुम्हारे पिता की पीढी हाथ झाड़ कर खड़ी हुयी,
शब्दों की थाली से तुमको तिलक लगाने को आतुर,
अथर्व तुम्हारा स्वागत है,

रहो कहीं भी किसी देश में कोई भी भाषा बोलो तुम,
किसी धर्म को चुनो किसी जीवन साथी के हो लो तुम,
कोई भी व्यवसाय तुम्हारा हो कोई भी भोजन हो,
किंतु हृदय में पावनता हो शुभ संकल्प प्रयोजन हो,
देश तुम्हारा भेदभाव न करे न्याय का दाता हो,
भाषा जिसमें झूम झूम कर जीवन गीत सुनाता हो,
धर्म हो ऐसा जो सब धर्मों का समुचित सम्मान करे,
जीवन साथी जीवन भर जीवन में सुख संचार करे,
व्यवसाय हो सबके हित में भोजन सरल सरस सादा,
अथर्व तुम्हारा स्वागत है.

किसी की याद में सुध-बुध कभी जो खो नहीं सकते

-आर॰पी॰'घायल'
किसी की याद में सुध-बुध कभी जो खो नहीं सकते
यक़ीनन वो ज़माने में किसी का हो नहीं सकते

ज़रा-सी धूप की ख़ातिर कभी भी छांव मत बेचो
बिना बादल बिना बरखा फ़सल तुम बो नहीं सकते

बचाकर चाहिए रखना हमेशा आँख का पानी
नहीं तो दाग़ दामन का कभी तुम धो नहीं सकते

गुलाबों की हिफ़ाज़त में लगे रहते हैं जो कांटे
उन्हें भी नींद आती है मगर वो सो नहीं सकते

बदल जाये भले दुनिया मगर जज़्बा नहीं 'घायल'
ग़मों का बोझ जज़्बा के बिना तुम ढो नहीं सकते
आर॰पी॰'घायल'
R.P.ghayal

होते मेरे गीत तुम्हारा कन्ठ अगर होता

- राकेश खंडेलवाल
http://geetkalash.blogspot.com/
http://geetkarkeekalam.blogspot.com/

शब्दों को मिल जाता तेरे अधरों का चुम्बन
ओंर गीत को मीत तेरी साँसों से स्पम्दन
तो भावों का सोना सहसा हो जाता कुन्दन
अभिलाषायें महका करतीं होकर के चन्दन

वीणा के तारों का फिर व्यापार महीं होता
मंचों पर कविता होती, अखबार नहीं होता

मैने जब जब भी पीड़ा को छन्दों में बाँधा
तब तब तुमने गिरता आँसू पलकों पे साधा
मेरे ओंर तुम्हारे मन की दूरी क्या दूरी है
एक नदी के दो कूलों वाली ये मज़बूरी है

झीना सा परदा कोइं दीवाल नहीं होता
साँसों में सरगम होती भूचाल नहीं होता

आओ तुम्हें निमन्त्रण है तुम कुछ भी कर सकते हो
तुम मरुथल में सावन की मल्हारें बो सकते हो
तुम चाहो तो क्रन्दन में मुस्कानें भर सकते हो
चाहो तो सब कुछ सुन कर भी पत्थर रह सकते हो

भीख डालने को कोइं भी वाध्य नहीं होता
याचक का भी हर पत्थर आराध्य नहीं होता

मेरे मधुवन में बसन्त आ ठहर गया होता
होते मेरे गीत तुम्हारा कम्ठ अगर होता

राकेश खंडेलवाल

कभी कभी दुआओं का जवाब आता है

- राहुल उपाध्याय
http://mere--words.blogspot.com/

कभी कभी दुआओं का जवाब आता है
और कुछ इस तरह कि बेहिसाब आता है

यूँ तो प्यासा ही जाता है अक्सर सागर के पास
मगर कभी कभी सागर बन कर सैलाब आता है

ढूंढते रहते हैं जो फ़ुरसत के रात दिन
हो जाते हैं पस्त जब पर्चा रंग-ए-गुलाब आता है

दो दिलों के बीच पर्दा बड़ी आफ़त है
तौबा तौबा जब माशूक बेनक़ाब आता है

पराए भी अपनों की तरह पेश आते हैं 'राहुल'
वक़्त कभी कभी ऐसा भी खराब आता है

मुक्तक


http://mainsamayhun.blogspot.com/

सभी के सामने दलदल को, जो दलदल बताता है
जमाना आजकल उसको, बड़ा पागल बताता है
किसी की याद ने काफ़ी , रुलाया है तुम्हें शायद
तुम्हारी आँख का फैला , हुआ काजल बताता है

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नहीं है चीज़ रखने की ,जो बच्चे साथ रखते हैं
खिलौनो के दिनो मे बम , तमन्चे साथ रखते हैं
कहीं बचपन न खो जाए हमारा इसलिए हम तो
अभी तक जेब मे दो चार ' कन्चे ' साथ रखते हैं
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सफर में जा रहे हो तो , किसी से बात मत करना
कसम है दोस्ती हरगिज़ ,किसी के साथ मत करना
मैं जब बहार निकलता हूँ , मेरी माँ रोज कहती है
समय से लौट आना तुम , ज़्यादा रात मत करना
डॉ। उदय ' मणि '


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अंधेरे से भिड़ा रहा

- मानोशी चेटर्जी
http://manoshichatterjee.blogspot.com/


अंधेरे से भिड़ा रहा
था जुगनु पर अड़ा रहा
.
उड़ा तो मैं बहुत मगर
ज़मीन से जुड़ा रहा
.
बहुत रुलाया ज़र्रे ने
जो आँख में पड़ा रहा
(ज़र्रा- धूल का कण, particle)
.
मैं सजदे में झुका रहा
वो बुत बना खड़ा रहा
.
पुरानी इक क़िताब का
सफ़ा कोई मुड़ा रहा
(सफ़ा- पन्ना, page)

हवा भी कम लड़ी नहीं
दरख़्त भी अड़ा रहा
(दरख़्त- पेड़, tree)
.
मैं वक़्त से उलझ गया
तु लम्हे में पड़ा रहा
.
वो याद बन के, ज़िंदगी
में मोती सा जड़ा रहा

मैं था धुँआ ऐ ’दोस्त’ पर
मिरा असर बड़ा रहा
.
--मानोशी
सफ़ा- पन्ना
जर्रे- धूल के कण
दरख़्त- पेड़

जिस तरह भी हो हमें महफ़िल सजानी चाहिए

- शरद तैलंग
http://www.sharadkritya.blogspot.com

जिस तरह भी हो हमें महफ़िल सजानी चाहिए
फ़कत इसके वास्ते कोई कहानी चाहिए ।
जब सहर होगी तो अपने आप ही उठ जायेंगे
शर्त ये है रात भर बस नींद आनी चाहिए ।
आस्मां की बात करते सब यहाँ मिल जाएंगे,
पर ज़मीं से जुड़ सके वो ज़िन्दगानी चाहिए ।
झुर्रियां जो आ गईं तो ग़म न कर इस बात का,
उम्र पाने की भी कुछ क़ीमत चुकानी चाहिए ।
मुझसे मिलकर उसने जाना बात तो ये सच नहीं,
’इश्क करने के लिए यारो जवानी चाहिए’ ।
ज़िन्दगी गुज़री है जैसे मौत के डर से मियां !,
हादसे से कम नहीं अब मौत आनी चाहिए ।
सब यहाँ मिल जाएगा मिलना मुश्किल है ’शरद’
आपको ग़र दोस्तों की मेहरबानी चाहिए ।
शरद तैलंग

शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

- महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश


फूल तो मसल दिया, विषाक्त शूल बो दिया
सूद को बटोरने में हाय मूल खो दिया
कागजों के फूल बार- बार सूंघते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

एक दिन कली हसीन मुस्कराई बाग में
स्वप्न था बनेगी फूल वो कभी सुहाग में
किन्तु और ही लिखा था ज़िन्दगी ने भाग में
जल गयी दहेज की छिपी- छिपी सी आग में

जब हमें पता चला, कि है समाज ने छला
सोचते रहे चला कियेगा यूं ही सिलसिला
चादरों में बेखबर, सिर्फ़ ऊंघते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

सब तरफ़ मची हुई है आज हाय- हाय क्यों
दानवों का राज, देवता हैं निस्सहाय क्यों
काज क्यों बिगड़ रहे हैं सुप्त तुण्डकाय क्यों
छोड़ कर घरों को लोग खोजते सराय क्यों

मंत्र श्राप बन गये, विलोम हो हवन गये
मुस्करा रहे थे कल जो, आज रो नयन गये
मन्ज़िलें तो न मिलीं कि राह खूंदते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

बुद्धि पर गुमान यूं कि भावनाएं न रहीं
तर्क यूं प्रखर हुए कि मान्यतायें न रहीं
दर्द इस कदर बढ़ा कि वेदनायें न रहीं
धर्म शत्रु बन गये कि मित्रतायें न रहीं

एक शोर सा उठा, बम कोई कहीं फटा
हैं लहू के रंग की आसमान में घटा
असलियत से हम मगर आंख मून्दते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

दोस्त तो हमें बहुत टोकते रहे सदा
किन्तु अपनी कब्र हम खोदते रहे सदा
राह थी सरल मग़र मोड़ते रहे सदा
झूठ की ही चादरें ओढ़ते रहे सदा

हम पिला रहे थे दूध आस्तीन सांप को
जानते थे तूल दे रहे हैं एक पाप को
नाग-वेणियों में किन्तु फूल गूंथते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

फूल तो मसल दिया, विषाक्त शूल बो दिया
सूद को बटोरने में हाय मूल खो दिया
कागजों के फूल बार- बार सूंघते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ अगस्त २००७