Wednesday, January 7, 2009

वेदना विरह की

-: प्रकाश यादव "निर्भीक",
अधिकारी, बैँक ऑफ़ बड़ौदा,
तिलहर शाखा,
जिला-शाहजहाँपुर,उ0प्र0, मो.०९९३५७३४७३३


पहला विरह है यह पहली मिलन की,
लगता है यह विरह है धरती व गगन की;
खुशबू अब जाती रही अपनी चमन की,
जीवन मेँ न चमक रही अब कंचन की।

अकेलापन का ही दर्द अब रह सा गया,
मिलन की मिठास को विरह ही खा गया;
अभी-अभी बसंत था वो कहाँ खो गया,
देखते ही देखते अभी पतझड़ आ गया।


यादोँ की परिधि मेँ जिन्दगी सिमट गई,
धड़कन जो थी ज़िगर की वही विछड़ गई;
सुबह होने से पहले ही फिर शाम हो गई,
कली खिलते-खिलते अधखिली रह गई।

वेदना विरह की अब कम होने से रही,
मिलन की मिठास अब मिलने से रही;
जो बात है उसमेँ इस तस्वीर मेँ नहीँ,
सदाबहार शायद मेरी तकदीर मेँ नहीँ।

विरह के बाद फिर मिलन होगी कभी,
इसी आस से बैठा है सुखी डाल पे अलि;
बनेगेँ फूल फिर इस उपवन की कली,
आयेगी बहार तब जीवन जो मेँ मिली थी कभी।

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