Thursday, January 8, 2009

विदा

(-‘मैं चल तो दूँ’)
डॉ. कविता वाचक्नवी
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आज दादी,चाचियों,बहना,बुआ ने
चावलों से,धान से, भर थाल
मेरे सामने ला कर दिया है,
मुठ्ठियाँ भर कर
जरा कुछ जोर से पीछे बिखेरो
और पीछे मुड़, प्रिये पुत्री !
नहीं देखो,

पिता बोले अलक्षित।
बाँह ऊपर को उठा दोनों
रची मेहंदी हथेली से
हाथ भर - भर दूर तक
छिटका दिया है
कुछ चचेरे औ’ ममेरे वीर मेरे
झोलियों में भर रहे
वे धान-दाने
भीड़ में कुहराम, आँसू , सिसकियाँ हैं
आँसुओं से पाग कर
छितरा दिए दाने पिता!
आँगन तुम्हारे
रोपना मत
सौंप कर
मैं जा रही हूँ.......।


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2 comments:

  1. प्रिय अर्चना
    रात ही मैं नैशनल बुक ट्रस्ट के आमन्त्रण पर विजयवाड़ा में आयोजित २०वें राष्ट्रीय पुस्तक मेले के साहित्यिक कार्यक्रम से लौटी हूँ।
    अभी आपका ईमेल पढ़ा है।मेरी इस कविता को तुमने अपने चयन में संजोया है,क्या कहूँ! बस,इस सदाशयता के लिए आभारी हूँ। प्रसन्न रहो। खूब नया लिखो। ब्लॊग तो बढ़िया बना ही लिया है।

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  2. गैप को
    नहीं देखो,

    पिता बोले अलक्षित।
    बाँह ऊपर को उठा दोनों

    हटा दिया जाना चाहिए यहाँ से तथा अलक्षित के बाद वाली पंक्ति से पहल कर दें। अर्थात् बाँह ऊपर... वाली पंक्ति और पिता बोले...वाली के बीच में । न कि अभी जहाँ है।

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