Thursday, January 8, 2009

वृक्ष का संदेश

- नीलू गुप्ता

मानव तू दानव है बना हुआ, भूल गया तू मानवपन,
भय के घनीभूत कोहरे में लिपटा सिमटा तेरा मन,
मदमत्त कुंजरे की भांति बेसुध हो रौंद रहा तू मानव को,
आहत तो तू होता ही नहीं , राहत है बस मिलती है तुझको|

लहू से प्यास बुझाने में लगा है तू, बस लहू से प्यास बुझाने में,
पर न हो सका कोई भी सफल, लहू से अपनी प्यास बुझाने में,
इस भव्य धरा पर न और कहर ढा,तू बस मेरी सुन, बस मेरी सुन,
हर क्षण, हर पल परोपकार में बिता, बीता जाता जीवन तू मेरी सुन|

सिकंदर था बड़ा भारी योद्धा, कहर ढाया था उसने धरा पर,
विश्व विजयी बना था वो, क़त्ल किए थे उसने लाखों सर,
हाथ मेरे दोनों बाहर रहें मेरे कफ़न से, जाते जाते कह गया था,
जग देखेगा, खाली हाथ जाता है सिकंदर, खाली हाथ आया था|

न सीख पाया तू उससे भी हे मानव कहाँ गया तेरा मानवपन,
औरों का चैन लूट रहा, अपनों की खरोंच से भी व्याकुल है तेरा मन,
अस्त्र-शास्त्र से वीक्षित, अस्थि पंजर है मानव के चहुँ और गिर रहे,
बेखबर खड़ा, करता नहीं उद्यम , परिवार के परिवार हैं उजड़ रहे|

तू मेरी सुन, तू मेरी सुन, मेरा हर पल हर क्षण परोपकार में बीतता ,
पथिकों को छाया, पथिकों को बसेरा, दुश्वास खींच जीवन दान देता,
फल जब मुझमे लग जाते नीचे झुक जाता और खाने को फल देता ,
मर कर काम आता लकडियाँ चूल्हा जलाती, तना फर्नीचर बन जाता |

मानव धरम भी तो सिखाता है तुझको हम हैं यहाँ भाई भाई,
सुखी बसे संसार सब दुखिया रहे न कोई इस सारे जग माहीं,
'वसुधैव कुटुम्बकम' का ही नारा हो बस सब के ही मन भाई,
जग में बैरी कोई भी नहीं सब जग है बस अपन के ही नाई |

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