-डा. रमा द्विवेदी
एक वर्ष भी बीत गया, नया वर्ष फिर आया है,
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है।
कितने पल हमसे रूठ गए, कितनी विभूतियाँ खोई हैं,
कितने शूल चुभे अन्तस में, कितनी मालाएँ पिरोई हैं,
मंदिर में कुछ पल बीत गए, श्मशान से कभी बुलावा है।
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पया है॥
भावों के आलोड़न से मन-आंगन में रची रंगोली,
इक पल सेज सजी दुल्हन की, दूजे पल मेंहदी धो ली,
सुख-दु:ख के बैठ हिंडोले नियति ने क्रम दोहराया है।
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है॥
जैसे भी कट गया सफ़र, क्या कल भी ऐसा कट पाएगा?
रिश्तों की बगिया में क्या फिरसे स्नेह सुमन खिल पाएगा?
फूल खिला जो डाली पर पतझड़ नें उसे मिटाया है।
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है॥
नाहक ही झगड़ा करते हम, कुछ भी अपना नहीं यहाँ ,
चन्द दिनों का अभिनय कर लें, क्या जाने कल कौन कहाँ ?
साँसों की लय कब टूटेगी यह जान न कोई पाया है?
कितना खोया,कितना पाया? गणित नहीं लग पाया है॥
Thursday, January 8, 2009
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