Thursday, January 8, 2009

स्मृतियों का चक्रव्यूह --

-- शकुन्तला बहादुर , कैलिफ़ोर्निया,यू.एस.ए.
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जब भी मेरी दृष्टि खिड़की पर जाती है ।
मन की बगिया महक सी जाती है ।।
अतीत का धुँधलापन,उजियारा बन जाता है।
भूत-वर्तमान का भेद मिट जाता है ।।
लाल और पीले ये, फूल हैं खिले।
मुझको तो जैसे, वरदान से मिले।।
नन्हें हैं कोमल हैं,दृष्टि को लुभाते हैं।
घर में सुगन्ध भर मन को हर्षाते हैं।।
फूलों सी कोमल और सतरंगी सुधियाँ भी।
मन प्रमुदित,तन पुलकित कर जाती हैं।।
सावन की रिमझिम को, तीज और राखी को।
याद कर ये आँखें ,बरसने लग जाती हैं।।
सुदूर सिन्धु पार से,अपनों का अपनापन।
लगता है जैसे मुझे बार बार बुलाता है।।
हिलमिल कर बैठना,और वो हँसना हँसाना।
सचमुच ही मुझको सब बहुत याद आता है।।
वह लड़ना झगड़ना और रूठना मनाना भी।
मुझको अब बहुत ही प्यारा सा लगता है ।।
स्मृतियों की तरंगों में, तिरता हुआ सा मन।
स्नेह की सरिता में डूबता सा जाता है।।
यादों का काफ़िला चलता ही जाता है।
मानस-पटल पर बढ़ता ही जाता है।।
काल का प्रवाह भी, बहता ही जाता है।
उम्र ढल जाती है,पर भूल नहीं पाता है।।
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