Sunday, December 28, 2008

शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

- महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश


फूल तो मसल दिया, विषाक्त शूल बो दिया
सूद को बटोरने में हाय मूल खो दिया
कागजों के फूल बार- बार सूंघते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

एक दिन कली हसीन मुस्कराई बाग में
स्वप्न था बनेगी फूल वो कभी सुहाग में
किन्तु और ही लिखा था ज़िन्दगी ने भाग में
जल गयी दहेज की छिपी- छिपी सी आग में

जब हमें पता चला, कि है समाज ने छला
सोचते रहे चला कियेगा यूं ही सिलसिला
चादरों में बेखबर, सिर्फ़ ऊंघते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

सब तरफ़ मची हुई है आज हाय- हाय क्यों
दानवों का राज, देवता हैं निस्सहाय क्यों
काज क्यों बिगड़ रहे हैं सुप्त तुण्डकाय क्यों
छोड़ कर घरों को लोग खोजते सराय क्यों

मंत्र श्राप बन गये, विलोम हो हवन गये
मुस्करा रहे थे कल जो, आज रो नयन गये
मन्ज़िलें तो न मिलीं कि राह खूंदते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

बुद्धि पर गुमान यूं कि भावनाएं न रहीं
तर्क यूं प्रखर हुए कि मान्यतायें न रहीं
दर्द इस कदर बढ़ा कि वेदनायें न रहीं
धर्म शत्रु बन गये कि मित्रतायें न रहीं

एक शोर सा उठा, बम कोई कहीं फटा
हैं लहू के रंग की आसमान में घटा
असलियत से हम मगर आंख मून्दते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

दोस्त तो हमें बहुत टोकते रहे सदा
किन्तु अपनी कब्र हम खोदते रहे सदा
राह थी सरल मग़र मोड़ते रहे सदा
झूठ की ही चादरें ओढ़ते रहे सदा

हम पिला रहे थे दूध आस्तीन सांप को
जानते थे तूल दे रहे हैं एक पाप को
नाग-वेणियों में किन्तु फूल गूंथते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे

फूल तो मसल दिया, विषाक्त शूल बो दिया
सूद को बटोरने में हाय मूल खो दिया
कागजों के फूल बार- बार सूंघते रहे
शब्द लुप्त हो गये, अर्थ ढूंढते रहे.


महेश चन्द्र गुप्त ख़लिश
६ अगस्त २००७

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