Sunday, December 28, 2008

होते मेरे गीत तुम्हारा कन्ठ अगर होता

- राकेश खंडेलवाल
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शब्दों को मिल जाता तेरे अधरों का चुम्बन
ओंर गीत को मीत तेरी साँसों से स्पम्दन
तो भावों का सोना सहसा हो जाता कुन्दन
अभिलाषायें महका करतीं होकर के चन्दन

वीणा के तारों का फिर व्यापार महीं होता
मंचों पर कविता होती, अखबार नहीं होता

मैने जब जब भी पीड़ा को छन्दों में बाँधा
तब तब तुमने गिरता आँसू पलकों पे साधा
मेरे ओंर तुम्हारे मन की दूरी क्या दूरी है
एक नदी के दो कूलों वाली ये मज़बूरी है

झीना सा परदा कोइं दीवाल नहीं होता
साँसों में सरगम होती भूचाल नहीं होता

आओ तुम्हें निमन्त्रण है तुम कुछ भी कर सकते हो
तुम मरुथल में सावन की मल्हारें बो सकते हो
तुम चाहो तो क्रन्दन में मुस्कानें भर सकते हो
चाहो तो सब कुछ सुन कर भी पत्थर रह सकते हो

भीख डालने को कोइं भी वाध्य नहीं होता
याचक का भी हर पत्थर आराध्य नहीं होता

मेरे मधुवन में बसन्त आ ठहर गया होता
होते मेरे गीत तुम्हारा कम्ठ अगर होता

राकेश खंडेलवाल

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