Wednesday, December 31, 2008

मेरी एक कविता

-कुसुम सिन्हा

महसूस करती हूं मैं
बडी गहराई से कि
मेरा मन आब एक बू‌ढा बरगद है
सूखा बेजान उदासीन
लेकिन पहले एसा नहीं था
मेरी घनी डालों में
झूले डाल लडकियां
गाती थीं रसभरे गीत
हंसी ठिटोली आैर प्यार
चहचहाहट से भर जाती थी डालियां
शाम होते घर लैाटते
चिडियों का झुन्ड
अपने बच्चों को प्यार करते
गाते थे शायद कोई गीत या लोरी
झूमती डालियों के साथ
मैं भी गाने लगता था
कैसा सुख कैसी त्रृप्ति
मन में उठती प्यार की हिलोर
पर अब एैसा नहीं है
मेरी कुछ डालियां सूखकर गिरी
कुछ गिरने को तैयार
फिर भी शाम होते घर लैाटती
चिडियों के झुन्ड
मन में एक आस जगाते हैं
शायद वे मेरी घनी डालों पर बैठें
घोसले बनांए गांए
पर नहीं वे गाती गाती आगे बढ जाती है
पहले सी छांह जो नहीं
पत्ते भी कम ही बचे हैं
फिर भी जीना है
क्योंकि यही तो जीवन है

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